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Kuch log ese hote hai jo itihash padhte hai,Kuch Ithihash Padhate hai, Kuch ese hote hai Jo NYDC mein aate hai Or Khud Itihash Banate Hai. Jai Hind Jai Bharat!...Khem Chand Rajora....A Great Leader's Courage to fulfill his Vision comes from Passion, not Position...Gajendra Kumar....National Youth Development Committee is a Platform which remove the hesitation and improve the motivation and talent of the Youth...Manu Kaushik..!!

About Manu

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मैं अपने प्यारे भारत को स्वर्ग से भी सुंदर बनाना चाहता हूँ जहाँ देवता भी आने को तरसें..इसे फ़िर से सोने की चिडि़या और विश्वगुरु बनाना चाहता हूँ ना सिर्फ़ धर्म के मामले में बल्कि हरेक क्षेत्र में..अपने देश को मैं फ़िर से इतना शक्तिशाली बना देना चाहता हूँ कि अगर ये जम्हाई भी ले ले तो पूरे विश्व में तूफ़ान आ जाय. मैं अपने भारतवर्ष ,अपने माता-पिता तथा सनातन वैदिक धर्म से अगाध प्रेम और सम्मान करता हूँ |
हमारे बारे में, हम बताएँगे, फिर भी, क्या आप समझ पाएंगे, नहीं न, फिर क्या, हम बताते आप उलझ जाते, आप समझते तो हम मुकर जाते, क्यूंकि अब किसी को किसी के बारे में जानने की, न तो चाहत है और न ही फुर्सत है |
वन्दे मातरम्... जय हिंद... जय भारत...
कोशिश तो कोई करके देखे,यहाँ सपने भी सच होते है ।
ये दुनिया इतनी बुरी नहीं, कुछ लोग अच्छे भी होते है ।।
~ मनु कौशिक

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Saturday 18 August 2012

शिष्य की निष्ठा

दक्षिण भारत के एक प्रतिष्ठित संत थे-स्वामी वादिराज। उनका शिष्य बनने के लिए लोग लालायित रहते थे। वादिराज अपने सभी शिष्यों से बेहद प्रेम करते थे। लेकिन कनकदास उन्हें सर्वप्रिय थे। कनकदास निम्न वर्ण के थे इसलिए उच्च वर्ण के शिष्यों को यह बात नहीं पचती थी कि स्वामी वादिराज उन सबको छोड़कर एक निम्न जाति के शिष्य को पसंद करें। वे सभी कनकदास को हर पल नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते रहते थे। स्वामी वादिराज इस बात को समझ गए थे।

एक दिन उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाया और बोले, 'मैं तुम सबको एक-एक केला दे रहा हूं । इसे ऐसे स्थान पर खाएं जहां पर तुम्हें कोई भी न देखे। यदि किसी ने तुम्हें फल खाते हुए देख लिया तो यह मेरी आज्ञा का उल्लंघन होगा।' सभी शिष्यों ने स्वामी जी की बात ध्यान से सुनी और एक-एक केला लेकर वहां से चले गए। अगले दिन सभी शिष्य उनके पास एकत्रित हुए। सभी शिष्य खाली हाथ थे, केवल कनकदास के हाथ में वह केला ज्यों का त्यों था। कनकदास के हाथ में केला देखकर स्वामी वादिराज बोले, 'क्यों कनकदास? तुमने केला क्यों नहीं खाया?' कनकदास हाथ जोड़कर स्वामी वादिराज से बोले, 'गुरुजी, आपने कहा था कि इस केले का सेवन एकांत में करना। मगर मुझे भरसक प्रयत्न करने पर भी कहीं एकांत न मिला। हर जगह एकांत ढूंढने पर मुझे लगा कि मैं स्वयं तो वहां मौजूद हूं ही, साथ में ईश्वर भी हर जगह विद्यमान है। ऐसे में एकांत कहां हुआ? मैं किसी भी हालत में आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहता था। इसलिए मैं इसका सेवन नहीं कर पाया।'

कनकदास की बात सुनकर सभी शिष्यों की नजरें झुक गईं और उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि शिष्य कनकदास अपने चरित्र, सोच और आध्यात्मिक उपलब्धि में उनसे कहीं श्रेष्ठ है। इसके बाद उन्होंने उससे ईर्ष्या करना छोड़ दिया और उसके साथ प्रेम और सद्भाव से रहने लगे।

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